अपनी सबसे पवित्र प्राचीन मातृभूमि “आर्यावर्त” का धर्मशास्त्रों में प्रथम रहस्या उल्लेख-
धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों में वैदिक धर्म के अनुयायियों के देश या क्षेत्र आर्यावर्त के विषय में प्रभूत चर्चा होती रही है। ऋग्वेद के अनुसार आर्य-संस्कृति का केन्द्र सप्तसिन्धु अर्थात् आज का उत्तर-पश्चिमी भारत एवं पंजाब
धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों में वैदिक धर्म के अनुयायियों के देश या क्षेत्र आर्यावर्त के विषय में प्रभूत चर्चा होती रही है। ऋग्वेद के अनुसार आर्य-संस्कृति का केन्द्र सप्तसिन्धु अर्थात् आज का उत्तर-पश्चिमी भारत एवं पंजाब था (सात नदियों का देश सप्तसिन्धु) । कुभा (काबुल नदी, ऋ० ५॥५३।९; १०।७६॥।६) से क्रुमु (आज का कुर्रम, ऋ० ५॥५३।९; १०१७५।६), सुवास्तु (आज का स्वात, ऋ० ८।१९।३७ ), सप्तसिन्धु (सात नदियाँ, ऋ०२।१२ १२९; ४॥२८।१; ८।२४।२७; १०।४३।३), यमुना (ऋ० ५।॥५२।१७; १०।७ण।५), गंगा (ऋ० ६।४५। ३१; १०।७५१५) एवं सरयू (सम्भवतः आज के अवध में, ऋ० ४।३०।१४ एवं ५।५३।९) तक ऋग्वेद में वर्णित हैं। पंजाब की नदीयाँ ये हैं---सिन्धु (ऋ० २।१५।६; ५॥५३।९; ४॥३०।१२; ८।२०।२५), असिक्तनी (ऋ० _ ८।२०।१२५, १० ७५ ।५) ), परुष्णी (ऋ० ४।२२।२; ५॥५२।९), विपाश एवं शुतुद्नि (ऋ० ३।३३। १-यहाँ दोनों के संगम का उल्लेख है), दृणढ्वती, आपया एवं सरस्वती (ऋ० ३।२३।४ परम पवित्र), गोमती (ऋ० ८।२४। ३०; १०।७५।६), वितस्ता (ऋ० १० ।७५।॥५)। आर्यों ने क्रमशः दक्षिण एवं पूर्व की ओर बढ़ना प्रारम्भ किया। काठक ने कुरु-पञ्चाल का उल्लेख किया है। ब्राह्मणों के युग में आर्य क्रिया-कलापों एवं संस्कृति का केन्द्र कुरु-पञ्चाल एवं कोसलू-विदेह तक बढ़ गया | शतपथब्राह्मण के मत में कुरू-पञचालों की भाषा या बोली सर्वोत्तम थी।
तस्मावत्रोत्तराहि बाग्वदति कुरुपड्चालत्रा।
शतपथ ब्रा० ३।२।३।१५॥
कुरु-पब्न्चाल के उद्दालक आरुणि की बोली की प्रशंसा की गयी है। विदेह माठव, कोसरू-विदेह के आगे हिमालय से उतरी हुई सदानीरा नदी को पार करके उसके पूर्व में बसे, जहाँ की भूमि उन दिनों बड़ी उर्बर थी। यहाँ तक कि बौद्ध जातक कहानियों में हमें उदिच्च ब्राह्मणों का प्रयोग उनके अभिमान के सूचक के रूप में प्राप्त होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में देवताओं की बेदी कुरु-क्षेत्र में कही गयी है। (५।१॥१) | ऋग्वेद में भी ऐसा आया है कि वह स्थान, जहाँ से दृसद्वती, आपया एवं सरस्वती नदियाँ बहती हैं, सर्वोत्तम स्थान है (३।२३ ।४) । तैत्तिरीय ब्राह्मण में आया है कि कुरु-पञ-्चाल जाड़े में पूर्व की ओर और गर्मी के अन्तिम मास में पश्चिम की ओर जाते हैं। उपनिषद्-काल में भी कुरु-पञचाल प्रदेश की विशिष्ट महत्ता थी। जब जनक (विदेहराज) ने यज्ञ किया तो कुरु-पञ्चाल के ब्राह्मण बहुत संख्या में उनके यहाँ पधारे (बृ०उ० ३।१।१) | स्वेतकेतु पञ्चालों की सभा में गये (बृ० उ० ३।९।१९, ६।२।१; छान्दोग्य० ५॥३।१) | कौषीतकी ब्राह्मणोपनिषद् में आया है कि उशीनर, मत्स्य, कुरुपञ्चाल, काशीविदेह बौद्धिक क्रिया-कलापों के केन्द्र हैं (४।१); : इसी उपनिषद् में उत्तरी एवं दक्षिणी दो पहाड़ों (सम्भवतः हिमालय एवं विन्ध्य) की ओर संकेत है (२।१३) । निरुकत (२१२) में लिखा है कि कम्बोज देश आर्यों की सीमा के बाहर है, यद्यपि वहाँ की भाषा आर्यभाषा ही प्रतीत होती है। महाभाष्य के अनुसार सुराष्ट्र आर्यदेश नहीं था। आर्यावर्त की सीमा एवं स्थिति के विषय में धर्मसूत्रों में बड़ा मतभेद पाया जाता है। वसिष्ठधर्मसूत्र के अनुसार आर्यावर्त मर-मिलन के पहले सरस्वती के पूर्व, काछूकवन' के पश्चिस, पारियात्र एवं विख्ध्य पर्वत के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण है (१।८-९, १२-१३) । इस धर्मसूत्र ने दो और मत दिये हैं---गंगा एवं यमुना' के मध्य में आर्यावर्त है! तथा जहाँ कृष्ण मृग विचरण करते हैं बहीं आध्यात्मिक महत्ता विराजमान है।' आपस्तम्बधमंसूत्र में भी यही बात है। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में यही बात कई बार दोहराई है। शंखलिखित के धर्मसूत्र में आया है-- अनवद्य ब्रह्मवर्चस (पुनीत आध्यात्मिक महत्ता ) सिन्धु-सौवीर के पूर्व, काम्पिल्य नगर के परचम, हिमालय के दक्षिण तथा पारियात्र पर्वत के उत्तर आर्यावर्त में विराजमान है। मनुस्मृति के अनुसार विन्ध्य के उत्तर एवं हिमालय के दक्षिण तथा पूर्व एवं पश्चिम में समुद्र को स्पर्श करता हुआ प्रदेश आर्यावर्त है। बौधायनधर्मसूत्र (१।१।२८) में गंगा एवं यमुना के मध्य का देश आर्यावर्त कहा गया है। यह दूसरा मत है। यही बात तैत्तिरीयारण्यक में भी है जहाँ कहा गया है कि गंगा-यमुना प्रदेश के लोगों को विशिष्ट आदर दिया जाता है (२।२० ) । आर्यावर्त वह देश है जहाँ कृष्ण हरिण स्वाभाविक रूप से विचरण करते हैं-यह तीसरा मत, अधिकांश सभी स्मृतियों में पाया जाता है। वसिष्ठ एवं बौधायन के धर्मसूत्रों में भाल्लवियों के निदान नामक ग्रत्थ की एक प्राचीन गाथा कही गयी है, जिसमें ऐसा आया है कि जिस देश के पश्चिम सिन्धु है, पूर्व में उठता हुआ पर्वत है, तथा जिस देश में कृष्ण मृग विचरण करता है, उस देश में ब्रह्मवर्चस' अर्थात् आध्यात्मिक महत्ता पायी जाती है। इस प्राचीन गाथा के रहस्य को याज्ञवलय-स्मृति के भाष्य में विश्वरूप ने (याज्ञ० १।२) श्वेताश्वतर के एक गद्यांश के उद्धरण से स्पष्ट किया है कि यज्ञ एक बार कृष्णमृग बनकर पृथिवी पर विचरण करने लगा और धर्म ने उसका पीछा करता आरम्भ किया।'
आर्यावर्त की उपर्युक्त सीमा के विषय में शंख, विष्णुधर्मसूंत्र (८४।४), मनु (२।२३ ) , याज्ञवल्वय (१२), संवर्त (४), लघु-हारीत, वेदव्यास (१३), बृहत-पराशर तथा अन्य स्मृतियों ने समान मत प्रकाशित किया है। मनुस्मृति (२। १७-२४) ने ब्रह्मावर्त को सरस्वती एवं दृषद्वती नामक दो पूत नदियों के बीच में स्थित माना है और कहा है कि इस प्रदेश का परम्परागत आचार 'सदाचार' कहा जाता है। मनु ने कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पञचाछ एवं श्रसेन को ब्रह्मविदेश कहा है और इसे ब्रह्मावर्त से थोड़ा कम पवित्र माना है। उनके मत से हिमालय एवं विन्ध्य के मध्य में एवं विनशन (सरस्वती) के पूर्व एवं प्रयाग के पश्चिम का देश मध्यदेश है, तथा आर्यावर्त वह देश है जो हिमालय एवं विन्ध्य के मध्य में है, जो पूर्व एवं पश्चिम में समुद्र से घिरा हुआ है तथा जहाँ कृष्णमृग स्वाभाविकतया विचरण करते हैं। उनके मत से यह आर्यावर्त यज्ञ के योग्य माना जाता है। इन उपर्युक्त देशों के अतिरिक्त अन्य देश म्लेच्छदेश कहे जाते हैं। मनु ने तीन उच्च वर्णों के मनुष्यों को ब्रह्मावर्त, ब्रह्मषिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त आदि देशों में रहने को कहा है। उनके मत से आपत्काल में शुद्ध वर्ण के लोग कहीं भी रह सकते हैं।
उपर्युक्त विवेचत से स्पष्ट है कि अति प्राचीन काल में विन्ध्य के दक्षिण की भूमि आर्यसंस्कृति से अछूती थी। बोधायनधर्मसूत्र (१।१।३१) का कहना है कि अवन्ति, अज्भ , मगध, सुराष्ट्र, दक्षिणापथ, उपावृत्, सिन्धु एवं सौवीर देश के लोग शुद्ध आर्य नहीं हैं। इसका यह भी कहना है कि जो आरट्टक, कारस्कर, पुण्ड, सौवीर, अंग, बंग, कलिंग एवं प्रानूत जाता है उसे सर्वपृष्ठ नामक यज्ञ करना पड़ता है और कलिंग जानेवाले को तो प्रायश्चित्त के लिए वैश्वानर अग्नि में हवन कराना पड़ता है। याज्ञवल्क्यस्मृति के भाष्य मिताक्षरा में देवल का एक ऐसा उद्धरण आया है जिससे यह पता चलता है कि सिन्धु, सौवीर, सौराष्ट्र, म्लेच्छदेश, अंग, वंग, कॉलिंग एवं आन्ध्र देश में जानेवाले को उपनयन संस्कार कराना पड़ता था। किन्तु ज्यों-ज्यों आर्य-संस्कृति का प्रसार चतुर्दिक होता गया, ऐसी धारणाएँ निर्मूल होती गयीं और सम्पूर्ण देश सबके योग्य समझा जाने लगा। आर्य-संस्कृति के उत्तरोत्तर पूर्व एवं दक्षिण की ओर बढ़ने से एवं अनायों द्वारा उत्तर-पश्चिमी' सीमा एवं पंजाब पर आक्रमण होने से पंजाब की नदियों वाला प्रदेश आर्यों के वास के लिए अयोग्य समझा जाने लगा। कर्णपर्व में सिन्धु एवं पंजाब की पाँच नदियों के देश में रहतेवालों को अशुद्ध एवं धर्मबाह्य कहा गया है (४३ ॥५-८) । | वैदिक धर्म जहाँ तक परिव्याप्त है, उस भूमि को विशेषतः पुराणों में भरतवर्ष या भारतवर्ष कहा गया है। खारवेल के हाथीगुम्फ के अभिलेख में इस शब्द को भरघवस कहा गया है। मा्कण्डेयपुराण (५७।५९) के अनुसार भारतवर्ष के पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम में समुद्र एवं उत्तर में हिमालय है। विष्णुपुराण (२।३।१) में भी यही उल्लेख है। मत्स्य, वायु आदि पुराणों में भारतवर्ष कुमारी अच्तरीप से गंगा तक कहा गया है। जैमिनि के भाष्य में शबर ने कहा है कि हिमालय से लेकर कुमारी तक भाषा एवं संस्कृति में एकता है (१० ।१।३५ एवं ४२ ) । माकण्डेय (५३ ।४१) वायू (भाग १,३३ ।५२) तथा कुछ अन्य पुराणों के अनुसार स्वायंभुव मनु के वंश में उत्पन्न ऋषभ के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष नाम पड़ा है, किन्तु वायु के एक अन्य उल्लेख (भाग २, अध्याय ३७।१३० ) से दुष्यन्त एवं शकुन्तला के पुत्र भरत से भारतवर्ष बना। विष्णुपुराण ने भारतवर्ष को स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए कर्मभूमि माना है (कर्मेभमिरियं स्वर्गंमपवर्ग च
गच्छताम्) । वायुपुराण ने भी यही बात दुहरायी है। एक मनोरंजक बात यह है कि भारतवर्ष के वे प्रदेश, जो आज अपने को अति कट्टर मानते हैं, आवित्यपुराण द्वारा (स्मृतिचन्द्रिका के उद्धरण द्वारा) वास के योग्य नहीं माने गये हैं, यहाँ तक कि वहाँ धर्मयात्रा को छोड़कर कभी भी ठहरने पर जातिच्युतता का दोष प्राप्त होता था तथा प्रायश्चित्त करना पड़ता था | आविपुराण. (आदित्यपुराण) में आया है कि आर्यावर्त के रहनेवालों को सिन्धु, कर्मदा (कर्मनाशा ) या करतोया को वर्मयात्रा के अतिरिक्त कभी भी नहीं पार कर ना चाहिए; यदि वे ऐसा करें तो उन्हें चन्द्रायण व्रत करता चाहिए।"
काञचौकाह्यपसौराष्ट्रदेवराष्ट्रास्थ्रभत्स्यजा:। कावेरी कोड्ूणा हुणास्ते देशा निन्दिता भूशम्॥ पठचनदो.....वसेत्॥ ....सौराष्ट्रसिन्धुसोवीरसावन्त्यं दक्षिणापथम। गत्वेतान् कामतो देशान कालिज्ूगंश्च पतेद् द्विजः॥ स्मृतिचन्द्रिका द्वारा उद्धृत आवित्यपुराण;। आदिपुराण--आर्यावतंसमुत्यज्ञों द्विजो वा यदि वाइहिज:। कर्मदासिन्धुपारं च करतोयां न लङ्घंयेत्। जार्यावर्तमतिकम्य बिना तोर्थक्रियां द्विजअः॥ आज्ञां चेव तथा पिन्नोरेन्देत विशुध्यति ॥
परिभाषाप्रकाद, पृ०५९।
स्मतिकारों एवं भाष्यकारों ने आर्यावर्त या भरतवर्ष या भारतवर्ष में व्यवहत वर्णाश्रमधर्मों तक ही अपने के सीमित रखा है। उन्होंने इतर लोगों के आचार-व्यवहार को मान्यता बहुत ही कम दी है; याजवल्वयस्मृति (२।१९२) ने कुछ छूट दी है।
विश्वकर्माज्ञानज्योति -पांचाल_मंडली -रमेश_पांचाल